हाय बेचारी ……..Oh That Poor Thing

This is a guest post written by Charu Mathur Dev. Charu is a freelancer in Hindi writing, editing and translating. Prior to that she was a school librarian. Her congenital orthopedic condition did not deter her from continuous upskilling and she did her MPhil and cleared SET and NET while working at the school. She also writes poetry and blogs about library science.

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जी हाँ ,हाय बेचारी, यही वो शब्द है जो बचपन से ही मैं बहुत सारे लोगों से अपने लिए सुनती आ रही हूँ। जब 11-12 साल की उम्र में स्कूल की एक लड़की से यह शब्द सुना, तब थोड़ा अजीब लगा, और मम्मी से इसका मतलब पूछा, तब उन्होनें सरल और सही जवाब दिया, “ इस शब्द का कोई मतलब नहीं होता और इसका इस्तेमाल भी अच्छे लोग नहीं करते हैं, इसलिए तुम भी ध्यान मत दो। “ कहते हैं न कि बचपन में जो एक बात मन में घर कर जाती है, वो सारी जिंदगी याद रह जाती है। आज भी यह शब्द मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता है।

अरे, आप भी सोचते होंगे, न दुआ न सलाम, एकदम ही अपनी बात शुरू कर दी, जी, तो आपकी शिकायत दूर कर देती हूँ। मैं शारीरिक रूप से एक प्रकार की जन्मजात विकृति (असाध्य और रेयर ऑफ द रेयरिस्ट कैटिगरी ) से पीड़ित हूँ, जिसके कारण मेरे दोनों पैरों की बनावट एक समान नहीं है। यह एक नहीं अनेक प्रकार के दर्द और मांसपेशियों की कमजोरी का कारण है और साथ ही अर्थराइटिस और ऋहयुमोटिड अर्थीराइटिस भी गिफ्ट में मिले हुए रोग हैं। लेकिन बचपन से अपनी पहचान इस प्रकार हुई कि मैं दूसरों से थोड़ी अलग हूँ बस और कुछ नहीं और यह पाठ मेरे माता-पिता ने ही सिखाया था।

1970 के दशक में जब समावेशी शिक्षा (Inclusive Education) का अस्तित्व नहीं था, तब हम जैसे असामान्य दिखने वाले सामान्य बच्चे भी सभी बच्चों के साथ ही पढ़ते थे।

स्कूल में टीचर्स ने किसी भी उस काम के लिए ज़ोर नहीं दिया, जिसको करने से मना कर दिया और किसी काम को करने से मना नहीं किया। माँ की सीख, लड़की हो इसलिए सारे काम करने हैं, तो दर्द के साथ ही जिंदगी की और हर दिन की शुरूआत कर दी थी।

Organised a stall in class 12 after a major hip surgery and won first prize. On extreme right.

इसी माहौल में जब मैं अपने आप को “बस थोड़ा अलग”मानते हुए एक सामान्य (अपनी ओर से ) जीवन जी रही थी, तब चलते-चलते दो लड़कियों को अपने बारे में यह कहते हुए सुना “ हाय बेचारी”! मुड़कर देखा तो उनकी आँखों में मेरे लिए एक बेचारगी का भाव था, जो देखने में बुरा लगा।

बाद में तो यह एक आम बात हो गई, लेकिन हाँ मेरे सामने यह कहने की किसी की हिम्मत नहीं थी। उम्र के एक पड़ाव के बाद यह एहसास हुआ, इस शब्द का इस्तेमाल अधिकतर उन लोगों ने किया जो मेरे जितना काम और हिम्मत नहीं दिखा पाते थे। वो मेरी कामयाबी को मेरी शारीरिक कमी का इनाम मानते थे। परिवार में भी कुछ लोगों ने यही कहा कि तुम एक तो लड़की हो और दूसरे शारीरिक विकलांग तो तुम्हें तो इस बात की छूट दे दी जाती है। तब मन करता है कि उन्हें बताऊँ कि किसी भी परीक्षा की उत्तर-पुस्तिका में कहीं मेरी शारीरिक विकलांगता का ज़िक्र नहीं होता था, तब कैसे मेरा अच्छा परिणाम, विकलांगता का इनाम हो सकता है। जब मैंने एक ही प्रयास में UGC (NET) (2005) और (UGC, SLET-PUNE) (2007) पास किया था, तब केवल शारीरिक विकलांगता का लाभ फीस में था, आज की भांति परीक्षा परिणाम में नहीं था, तब कैसे उस परिणाम को मैं अपनी विकलांगता का इनाम मान सकती हूँ।

इसी तरह जब एक ही प्रयास में सरकारी नौकरी लगी, तब भी इंटरव्यू बोर्ड तक पहुँचने में शारीरिक विकलांगता का लाभ था, लेकिन उस बोर्ड को क्लियर मैंने शेष सामान्य छात्रों की ही भांति किया, इस बात को कोई नहीं मानता था और न आज भी कोई स्वीकारता है। जब पीएचडी की प्रवेश परीक्षा पास करी तब तो कहीं भी मेरी विकलांगता का ज़िक्र नहीं आया। तब भी आज तक, “हर क्षेत्र में सफलता मिली है, अच्छा तभी तो, हाय बेचारी” का टैग मेरे साथ चस्पा होता आ रहा है।

सरकारी नौकरी में जहां सिर्फ आपका होना ही आपके वेतन के लिए काफी माना जाता था, वहाँ रात-दिन जो भी काम सौंपा जाता था, हँस कर किया, क्यों नहीं वहाँ मुझे मेरी विकलांगता का इनाम दिया गया। तब क्यों मेरी काबिलियत को विकलांगता से ऊपर रखकर देखा गया। आज भी इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास भी नहीं है।

लेकिन, बचपन में होने वाली तकलीफ आज कोई अर्थ नहीं रखती।

समवेशी समाज और शिक्षा का सपना वो लोग देखते हैं, जो इन शब्दों के अर्थ नहीं जानते। अगर समाज को सचमुच समवेशी बनाना है तो पहले परिवार को समवेशी बनाना होगा। परिवार में अगर किसी भी स्थिति का विशेष बच्चा है, तो उसे केवल आत्मनिर्भर बनाने लायक सहारा देना ही काफी होगा। अगर हम बच्चे का हर काम आगे बढ़कर करेंगे, तो वह कभी भी आत्मनिर्भर नहीं हो सकेगा।

आज कितने माता-पिता हैं जो अपने विशेष बच्चों को सिर्फ सहारा देते हैं, उनका सहारा बनते नहीं हैं। क्या मेरे माता-पिता के सीने में मेरे लिए प्यार नहीं था, जो उन्होनें मुझे कभी मुझे मेरे भाइयों से अलग नहीं माना। कभी भी मुझे न तो लड़की होने का और न ही मेरे शारीरिक अक्षमता का लाभ मेरे परिवार में दिया गया।

Participating in a dance performance. On the far right.

उनके इसी कदम का परिणाम यह है कि आज भी डॉक्टर्स मेरे एक्सरे और रिपोर्ट्स को अलग-अलग देखकर अचंभा करते हैं। एम्स के प्रसिद्ध हड्डी रोग विशेषज्ञ का कहना है कि इस रिपोर्ट का मरीज बैड रिड़न होना चाहिए, ये तुम्हारी रिपोर्ट्स नहीं हैं और उन्होनें फिर से सारे टेस्ट और एक्सरे करवाए जो पहले से काफी अलग और खराब भी थे। लेकिन यह मेरे माता-पिता और शिक्षकों का दिया आत्मविश्वास है कि मैं आज भी पहले से कहीं अधिक तकलीफ़ों के साथ, बिना किसी सहारे के अपना जीवन और गृहस्थी चला रही हूँ।

Recipient of achievement award under disabled category

लेकिन आज भी जब सुनती हूँ “हाय बेचारी” तब हँस देती हूँ।

न मेरी जिंदगी में हंसी कम है

न मेरी जिंदगी में तकलीफ कम है

फिर भी दोस्तों, मेरा तो मानना है,

कि “ हम है तो क्या गम है”………

19 comments

  1. […] Day 16. 18th December. Blogger Charu shares her personal experience of living with a disability and how often people are not able to look beyond it. From being pitied for her condition to having had her successes attributed to her disability, she has heard it all. Nevertheless, she has continued to move tirelessly towards her work and goals. Click here to see the world from her perspective. https://tripleamommy.com/2022/12/18/%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%af-%e0%a4%ac%e0%a5%87%e0%a4%9a%e0%a4%be… […]

  2. आपकी कहानी कितनी लाजवाब है!! आपके माता पिता का धैर्य और उनकी दृढ़ विश्वास ने आपके जीवन को पूरा बना दिया। आपकी काम करने की शक्ति, दर्द सहने की क्ष्मता, और अंदर की शक्ति की तारीफ़ करना तो मेरे बस की बात नहीं है। बस इतना कहूँगी कि आपकी सफलता बढ़ती जाये और आप ज़िंदगी की ख़ुशियाँ पाती जायें।

  3. वाह चारूजी, क्या बात कही आपने। आपका अनुभव मेरे लिए parenting की बेशकीमती सीख है। कितनी बार मां होने के नाते डर लगता है, बेटे के भविष्य को लेकर……कभी कभी तो ये भी लगता है कि कांहीं strict हो कर उसे मानसिक तकलीफ तो नहीं दे रहे…..आप please अपने अनुभव और share करिये.

    • बहुत – बहुत शुक्रिया आपका, आपने सही कहा, माता-पिता सारी दुनिया के साथ और सामने सख्त हो सकते हैं, लेकिन अपनी संतान के न तो साथ और न ही सामने सख्त हो सकते हैं। लेकिन विशेष जरूरतों वाले बच्चों के माता-पिता को इस चुनौती का तो सामना करना ही पड़ता है और मेरे माता-पिता ने तो उस समय किया था जब आज की तरह न तो सूचना और जानकारी का भंडार था और न ही उनके पास परिवार और मित्रों का साथ था। मेरी मम्मी का नाम शीला था, लेकिन एक कठोर शिला की भांति उन्होनें अपने दिल को बनाकर मेरी परवरिश की थी। मुझे बुरा भी लगता था, लेकिन आज जब हर तरह की चुनौती (शारीरिक-मानसिक और भावनात्मक) अकेले ही कर रही हूँ तब मम्मी की यही बात याद आती है, जिंदगी में तुम्हारे साथ कितने भी लोग क्यों न हो, अपनी लड़ाई तो तुम्हें अकेले ही लड़नी होगी। इसलिए कब नरम होना है और कब सख्त होना है,यह तो माता-पिता को ही तय करना होगा, बस इतना है कि बच्चे को सहारा दें कि वह अपने सहारे खड़ा हो सके, न की हर समय सहारा ही ढूँढता रहे। उम्मीद है, मैंने कुछ गलत नहीं कहा होगा

  4. बहुत ही खूबसूरत ढंग से सबकुछ कह दिया और बहुत कुछ नहीं भी कहा, यह सिर्फ मानसिक रूप से चौबीस कैरेट स्वस्थ्य मनुष्य के लिए ही संभव है।मन के जीते जीत है। आगे बढ़ते रहिए निर्बाध ऊंचाई की ओर, हार्दिक शुभकामनाएं मित्र

  5. डॉ संजीव चौधरी जी, आपकी सराहना और हौंसला अफजाई का तहे-दिल से शुक्रिया

  6. मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमें शारीरिक रूप से अक्षम लोगों पर दया नहीं करनी चाहिए। वास्तव में हमें उनकी प्रतिभा को देखना चाहिए और उन पर गर्व करना चाहिए। वे किसी और की तरह ही हैं, सिवाय इसके कि उन्हें अपनी शारीरिक चुनौतियों से पार पाने के लिए थोड़ी अधिक मेहनत करनी पड़ती है। वे उतने ही प्रतिभाशाली और किसी अन्य की तरह ही सक्षम हैं, और वे हमारे सम्मान और प्रशंसा के पात्र हैं। इसलिए उन पर दया मत करो; उनकी प्रतिभा देखें और उन पर गर्व करें। मुझे आपकी पोस्ट बहुत पसंद है जो इतनी सकारात्मकता से भरी है।

    • बहुत बहुत शुक्रिया रंजिता जी, आपने जो भी कहा सही कहा, दया तो किसी भी व्यक्ति पर किसी भी स्थिति में नहीं करनी चाहिए, लेकिन फिर भी लोग करते हैं, यही तो विडम्बना है आज के समाज की, फिर भी मेरे शब्दों और भावनाओं को समझने के लिए आपका हार्दिक आभार….

  7. चारु जी आप तो “वाह क्या बात साहसी” है जो दुसरो को लाचार महसूस करा दे|
    सतत चलते रहने और हिम्मत न हारने का आपका जज़्बा सराहनीय है|
    सच कहा सहारा ये शब्द हमे शक्ति देने वाला होना चाहिए, सहानुभूति या दिलासा देने वाला नहीं.

  8. आपने बिलकुल सही कहा कि माता पिता की सिखाई हुई सीख हमारे साथ हमेशा रहती है। माता पिता का अटूट विश्वास बच्चों में एक नई ऊर्जा भर देती है और उन्हें सक्षम बनाती है जीवन की कठिन से कठिन समस्याओं को हिम्मत और आत्मविश्वास से सामना करने के लिए।

  9. Not so fluent in hindi so I sadly missed some of the charm if this beautiful blog. It is a great courage to share personal stories. More power to you.
    Sreeparna

  10. hindi mein padh kar bahut bahut achcha luga. baat sahi hai parents sahara de sakte hain ya sahara ban sakte hain.. donoin mein antar hai.. alag thalag rakh kar buche ko aap kamzor bunate hain.. as a mom sometimes I overhelp my child but I need to learn that in teh long run this is not what will benefit him

  11. Well, I’d have to say thank you first to google translate😀 Your personal story is so inspiring. Truly to touch other people’s life is not based on what you have but what you’re willing to do and share to others! Keep inspiring!

  12. Shandaar lekh Charu ji. Mujhe lagta hai ki hume samanubhuti aur samaveshi hone ki shiksha bachpan se hi deni chaiye. Na hi taras ki jarurat hai aur na hi daya…bas samjhane ki darkar hai. Aise hi ache lekh likhte rahiye.
    #ContemplationOfaJoker #Jokerophilia

  13. What a powerful message, Charu ji! Indeed, we need love and understanding and not sympathy or apathy towards our disabled bretheren. Thanks for this much-needed post.

  14. Loved this blogpost. It is sad that even in the 21st century, we cant look past a person’s disabilities and use that single trait to define their whole personality. Being less judgemental and more open-minded is key to create a better society for our future generations.

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